50 बेहद मशहूर ग़ज़ल

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सर पर जो सायबां थे, पिघलतें हैं धूप में ।
सब दम-ब-खुद खडे् हुए जलतें हैं धूप में ।।

पहचानना किसी का किसी को कठिन हुआ ।
चेहरे हजार रंग बदलतें हैं धूप में ।।

बादल जो हमसफर थे कहाॅं खो गए कि हम ।
तन्हा सुलगती रेत पे जलतें हैं धूप में ।।

सूरज का कहर टूट पडा है जमीन पर ।
मंजर जो आस पास थे, जलतें हैं धूप में ।।

पत्ते हिलें तो शाखों से चिंगारियां उडें ।
सर सब्ज पेड आग उगलतें हैं धूप में ।।

‘मख्मूर’ हम को साय-ए-अब्रे-रवां से क्या ।
सूरजमुखी के फूल हैं, पलतें हैं धूप में ।।

अशोक अशंुल, कटनी

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कौन कहता है तेरे दिल मे उतर जाउगां
मै तो लम्हा हॅंू तुझे छू के गुजर जाउगां ।

शब के चेहरे में कोई रंग तो भर जाउगां
चल पडा हॅंू तो मैं अब ता-ब-सहर जाउगंा ।

आसमानों की सफंे काट के पहुॅंचा था यहाॅं
अब तेरी आॅंख से टूटा तो किधर जाउगंा ।

अपनी नजरों का कोई दायरा बुन लो मेरे गिर्द
वर्ना इन तेज हवाओं में बिखर जाउगंा ।

कौन खुशबू से हवाओं का बदन छीनता है
तू मेरे साथ रहेगा, मैं जिधर जाउगंा ।

चांद तारों की तरह मैं भी हॅंू गर्दिश मे ‘रशीद‘
हाॅं अगर तूने पुकारा तो ठहर जाउगंा ।।

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जोगी जी रुको इक बात सुनो, घर छोड़ के वन में जाना क्या
हर सांस में उसका जिक्र है जब, फिर बस्ती क्या वीराना क्या ।

सरमद ने पढ़ा क्यांे आधा कल्मा, मीरा क्यों जोगन बन बैठी
क्यों गौतम ने घर छोड दिया, ये राज किसी ने जाना क्या ।

दुनिया की खातिर दुख झेले, घर-बार लुटा, सूली पे चढे़
वो लोग तो सच्चे थे लेकिन, जग ने उनको पहचाना क्या ।

क्या ईद-दीवाली की खुशियां, क्या होली-क्रिसमस, बैसाखी
मुफलिस की जेब तो खाली है, त्यौहार का आना-जाना क्या ।

सुकरात तो है खामोश मगर, ये ज़हर का प्याला कहता है
इंसाफ़ जहां दम तोड़ चुका, वहां जीना क्या मर जाना क्या ।

माना तुम अच्छे़ रहबर हो, फिर देश में क्यों बदहाली है?
’कौसर’ इस राज़ से वाक़िफ है, समझे थे उसे दीवाना क्या ।

अब्दुस्सलाम कौसर

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दिल ने जब भी फरेब खाया है
तेरा अंदाज याद आया है ।
ये भी कुछ मजिंलो से कम तो नही
रास्तों में जो भी खोया-पाया है ।
तुम नुमाईश लिए हो दागों की,
हमने जख्मों को भी छुपाया है ।
कोई मरता नही किसी के लिए
हमने दुनिया को आज़माया है ।
वक्ते-हिजरां या वस्ल हो ’बरहम’
हमने दोनों में तुझको पाया है ।।

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हर एक रुह की सांसो पे वज़न देख रहा हूॅं
मै हरेक शख्स के हाथों मे कफ़न देख रहा हूॅं ।
एै खिराद मंदो खुदा होने का दावा न करो
मै तो इंसान मे आदमी को भी कम देख रहा हॅूं ।
ये हवाओं मे जहर और ये बीमार फिजा़
कल जो होना है अंजामे-चमन देख रहा हॅंू ।
ये खुदाओं के लिए कत्ले-खुदाई छोडो
नस्ले-आदम में तबाही का चलन देख रहा हॅंू ।
रोशनी वालों अंधेरों में भी जीना सीखो
मैं आफताब के पैरों मे थकन देख रहा हॅंू ।।

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मुस्कुराने से मेरा दर्द छुपा रहता है
इक परदा जमाने से बना रहता है ।
हर नए मोड पर हालात नए होतें हैं
उम्र भर याद किसे अहदे-वफा रहता है ।
बारिशें माॅंगता इक पेड़ जोगियों की तरह
उम्र भर एक ही पावॅं पर खड़ा रहता है ।
मरहम-ए-अश्क लगाना भी हमने छोड दिया
कब तलक देखिए ये जख्म हरा रहता है ।
खाक शहरों की छानी थी, मगर वो ना मिला
जर्रे-जर्रे में सुना था के ख्ुादा रहता है ।
एक तस्बीह मेरे हाथ में रहती है फिरोज़्ा
आस्तीन मे मेरी खंजर भी छुपा रहता है ।।

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दुआओं मे तेरी असर हो कैसे
सिर्फ फूलों का शहर हो कैसे ।
आप आ तो गए ज़िन्दगी में
साथ ये ज़िन्दगी बसर हो कैसे ।
बात जज्बात की होती नही बस
रेत पर खडा़ ये घर हो कैसे ।
ये मुहब्बत है कोई खेल नहीं
इतना आसाॅं भी सफर हो कैसे ।
ढूॅंढते ही रहे चारों तरफ हम
दिल में जो छुपा, उधर हो कैसे ।
आप से हम खफा तो नही हैं
दोस्ती ऐ ’दोस्त’ मगर हो कैसे ।।

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जरा भी छू लो, तो उड़ जाउॅं कहकशां की तरह
पडा़ हुआ हॅूं मैं इक तीरे-बेकमां की तरह ।
ये फासले भी उफु़क से ज्यादा दूर नहीं                                      उफु़क – क्षितिज
जमीन पर उतर आओगे आसमां की तरह ।
जुदा हुए भी तो दोनों की राख चमकेगी
सुलग रही है तेरी रुह मेरी जां की तरह ।
पहुंच के मंजिले-जानां पे हम बिखर से गए
किसी थके हुए सालारे-कारवां की तरह ।
मैं एक जान हॅंू कब तक हजार सिम्त खीचूॅं                                सिम्त – दिशा
अब आए मौत, गले से लगाए मां की तरह ।
ये कम नही कि मैं जीता हॅंू इस तरह जिससे
हर एक लुत्फ उठाता है दास्तां की तरह ।।

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हम जिन्दगी के साथ चलते चले गये
जैसी मिली हम उसमें ढलते चले गये ।
छोडा़ था उसने हाथ एक उम्र हो चुकी
फिर भी ख्वाब जाने क्यूॅं पलते चले गये ।
इक उफ़ भी ना निकली ज़ुबाॅं से उनके
हॅंस के निकली आग और जलते चले गये ।
आखिर हमने तोड़ ली यादों से दोस्ती
दुश्मनी में हम खुद को छलते चले गये ।
आई जो एक आॅंधी नया दौर कह के
कुछ लोग इसके साथ बदलते चले गये ।

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ना मिली छाॅंव कहीं यॅूं तो कई शज़र मिले
वीरान ही मिले सफ़र में जो भी शहर मिले ।
मंजिल मिले ना मिले मुझे कोई परवाह नहीं
मुझे तलाश हैं मंजिल की मंजिल को खबर मिले ।
हर गुनाह इंसान के चेहरे पर दर्ज रहता है
देखना अगर किसी रोज़ आइने से नज़र मिले ।
छोटी सी बात का लोग फ़साना बना देतें हैं
अब कैसे यहाॅं किसी से कोई खुल कर मिले ।
सबको मिला कुछ ना कुछ खास कुदरत से
फूलों को मिली खुशबू, परिंदो को पर मिले ।
बहुत मुश्किल से मिलता है कोई चाहने वाला
खोना मत तुम्हे कोई शख़्स ऐसा अगर मिले ।
कहाॅं हूॅं किस हाल में हॅंू, कोई बताये मुझे
एक मुद्धत हुई मुझे अपनी ही खबर मिले ।

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सब खामोश हैं यहाॅं कोई आवाज नही करता
सच कहकर किसीको कोई नाराज नही करता ।
वतन पर मर मिटने का जज्बा तो दरकिनार
वतन परस्तों पर यहाॅं कोई नाज़ नही करता ।
इस कदर बिका है इंसान दौलत के हाथों कि
किसी मुफ़लिस का चारागर इलाज नही करता ।
हर हुकुमत की हद ज़िस्म और ज़ेहन तक है
अब किसी के दिल पर कोई राज़ नही करता ।
हर शख़्स जी रहा हैं यहाॅं अपनी ही खातिर
किसी के लिये कुछ भी कोई आज नही करता ।
अपने हों या पराये सबसे मिल कर देख लिया
अब किसी से मिलने का मिज़ाज नही करता ।

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बदनाम मेरे प्यार का अफसाना हुआ है
दीवाने भी कहतें हैं कि दीवाना हुआ है ।
रिश्ता था तभी तो किसी बेदर्द ने तोडा़
अपना था तभी तो कोई बेगाना हुआ है ।
बादल की तरह आके बरस जाईए एक दिन
दिल आपके होते हुए वीराना हुआ है ।
बजतें हैं ख्यालों में तेरी याद के घुंघ़रु
कुछ दिन से मेरा धर भी परी-खाना हुआ है ।
मौसम ने बनाया है निगाहों को शराबी
जिस फूल को देखूॅं वही पैमाना हुआ है ।

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नाकामियों के बाद भी हिम्मत् वही रही,
ऊपर का दूध पी के भी ताकत् वही रही ।
शायद ये नेकियां हैं हमारी हर जगह,
दस्तर के बगैर भी इज्जत वही रही । दस्तर – पगडी़
मैं सर झुका के शहर मे चलने लगा,
मेरे मुखालफीनों में मगर दहशत वही रही ।
कदमों पे लाके डा़ल दी सब नेमतें मगर,
सौतेली माॅं की बच्चों से नफरत वही रही ।
खाने की चीजें माॅं ने जो भेजी थी गावॅं से,
बासी भी हो गई हैं तो लज्जत् वही रही ।।

मुनावर राणा ’अन्जान’

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