लगाई तो थी आग …
लगाई तो थी आग उसकी तस्वीर में रात को,
सुबह देखा तो मेरा दिल छालों से भरा पड़ा था।
कोई कितना ही खुश-मिज़ाज क्यों न हो
रुला देती है किसी की कमी कभी-कभी।
नुमाइश करने से चाहत नही बढ़ जाती,
मुहब्बत वो भी करते है जो इजहार तक नही करते।
वो किताब लौटाने का बहाना तो लाखों में था,
लोग ढुँढते रहें सबूत, पैग़ाम तो आँखों मे था।
ग़म सलीक़े में थे, जब तक हम ख़ामोश थे,
ज़रा ज़ुबां क्या खुली, दर्द बे-अदब हो गए।
आंखे बंद होने से पहले, यदि आंखे खुल जाए,
दावे के साथ कहता हूँ, पूरी ज़िंदगी सुधर जाए।
तहजीब देखता हूं, मै अक्सर गरीबो के घर मे,
दुपट्टा फटा होता है, लेकिन सर पर होता है।
आँखों की झील से दो कतरे क्या निकल पड़े,
मेरे सारे दुश्मन एकदम खुशी से उछल पडे़।
दोस्ती कभी-कभी ऐसे भी निभानी चाहिये,
कुछ बातें बिन कहे भी समझ जानी चाहिये।
यूँ चेहरे पर उदासी ना ओढिये साहब,
वक़्त ज़रूर तकलीफ का है लेकिन कटेगा मुस्कुराने से ही।