खिड़की से झांकता हूँ मै सबसे नज़र बचा कर,
बेचैन हो रहा हूँ क्यों घर की छत पे आ कर,
क्या ढूँढता हूँ जाने क्या चीज खो गई है,
इन्सान हूँ शायद मोहब्बत हमको भी हो गई।
सिर्फ इशारों में होती महोब्बत अगर,
इन अलफाजों को खुबसूरती कौन देता?
बस पत्थर बन के रह जाता “ताज महल”अगर
इश्क इसे अपनी पहचान ना देता।
घर से बाहर वो नक़ाब मे निकली
सारी गली उनकी फिराक मे निकली
इनकार करते थे वो हमारी मोहब्बत से
ओर हमारी ही तस्वीर उनकी किताब से निकली।
कोई तो इन्तहा होगी मेरे प्यार की खुदा,
कब तक देगा तू इस कदर हमें सजा,
निकाल ले तू इस जिस्म से जान मेरी,
या मिला दे मुझ को मेरी दिलरुबा।