मेरे अल्फाज़ क्या ज़िंदगी होती है बेटियों की
क्या जिंदगी होती है बेटियों की ?
क्या जिंदगी होती है बेटियों की ?
ये बेटियां ही समझे, किसी ने सही समझा नही…
जन्म लेना, पलना, बढ़ना कहीं,
ज़िंन्दगी के पूरे लम्हें बिताना कहीं,
मां-बाप के घर रौशन कर दूर तलक जाना कहीं,
कुछ याद भी आये तो भूलकर चुप रह जाना सही,
वो दोस्ती, प्यार, सखियों संग खेलना कहीं,
वक़्त के साथ उनसे भी जुदा होकर जाना कहीं,
चंद दिनों खुशियों की सागर में गोता लगाना सही,
फिर दुःख ही क्युं न हो दुःख सहकर ज़िन्दगी बिताना सही,
शहनाई बजे जब अंगनाई में, भाई को भुलाना सही,
आंसूओं को बहा डोली में विदा हो जाना कहीं,
एक बंधन तोड़ दूसरे बंधन में पिया से बंध जाना सही,
मिलन और जुदाई के पलों में ये नाटक देखना सही,
लक्ष्मी, सरस्वती का रुप होती कहीं,
फिर पति-व्रता नारी बन जाती कहीं,
है वो ताकत जो छोटे से घर को महल बना देती कहीं,
कफ़िया भी है जो ग़ज़ल को मुकम्मल बना देती कहीं,
फिर क्यूं घृणा करते हैं लोग इन बेटियों से?
फिर क्यूं घृणा करते हैं लोग इन बेटियों से?
कुछ समझ आता नहीं,
इन रिवाजों को बदल पाना राजीव तेरे बस में नहीं,
पर लोगों की अपनी सोच सही रखना
ख़ुद पर है कोइ ख़ुदा की नियत नहीं,
क्या-क्या अरमान सपने संजोते रहीं,
पर होता है क्या, वो जाने वही,
विवाह के बाद भी मां-बाप के साथ रहने का अधिकार होता कहीं,
ये दावा है राजीव का इतने वृद्धाश्रम होते नहीं,
क्या जिंदगी होती है बेटियों की ?
क्या जिंदगी होती है बेटियों की ?
ये बेटियां ही समझे, किसी ने सही समझा नही…
राजीव नंदन मिश्र